शबद अनाहत बागा | अवधूत गगन मंडल घर कीजै

शबद अनाहत बागा

अवधूत गगन मंडल घर कीजै।
⁠अमृत झरै सदा सुख उपजै,बंक नाल रस पीवै ॥
मूल बाँधि सर गगन समांनां,सुषमनं यों तन लागी ।
कांम क्रोध दोऊ भया पलीता,तहां जोगणीं जागी ।।
मनवां जाइ दरीबै बैठा,मगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं,सबद अनाहद बागा ॥

आध्यात्मिक व्याख्या

कबीर दास जी एक ऊंचा कोटि के साधक थे, वे कुछ भी ऐसे ही नहीं कहा कराते थे। यहाँ पर उन्होने अध्यात्म की एक महत्वपूर्ण साधना के तारफ इसरा करना चाहते हैं। जिसे करने से मुक्ति को प्राप्त किया जाए और जीवन को सार्थक बना लिया जाए|

कबीर साहेब जी यहाँ, गगन मंडल में घर करने की बात कर रहे हैं | जिसका मतलब है अपनी चेतना को समष्टि में विस्तृत कर दें| जंहा यह देह नहीं बल्कि परमात्मा की सर्वव्यापकता और पूर्णता हो | जो इस चेतना में स्थित हैं वे अवधूत हैं| अतः इसी भाव में स्थित होकर ध्यान करें |इसके लिए आप को खेचरी मुद्रा लगाकर सहस्त्रार से तपकता हुआ रस यानि जो अमृत है, उसका पान करना होता है| जिसको पीकर योगी के देह को अन्न और जल की आवश्यकता नहीं होती| बंकनाल यानि सुषुम्ना नाड़ी है, जिसमें कुण्डलिनी जागृत होकर ऊर्ध्वमुखी होती है|

इसके बाद मूलबंध (गुदा और जननेन्द्रियों का संकुचन करना) लगाकर, सर गगन समाना अर्थात मेरुदंड को उन्नत रखकर ठुड्डी भूमि के समानांतर रख कर सुषमनं में प्रवेश कर जाते हैं और आनंद की अनुभूति करते है|

इसके बाद जैसे ही जोगिणी जागृत होती है अर्थात् कुण्डलिनी जागृत होती है, काम क्रोध आदि मन के विकार पलीता (यानि बारूद में विस्फोट के लिए लगाई आग्नि) मे जल कर भस्म हो जाती हैं |

और मन जाकर दरीबा (फारसी भाषा में दरीबा उस स्थान को कहते थे जहाँ अनमोल मोती बिकते थे) में स्थित हो जाता है जहा अनाहत शब्द बाँग दे रहा है, अतः अब ईश्वर प्राप्ति में कोई संशय नहीं है|

सरल भाषा में कहे तो कुण्डलिनी शक्ति षट्चक्रों का भेदन कर ब्रह्मरंध्र तक पहुँच जाती है, तब मन पूर्णतः शान्त और अन्तर्मुखि हो जाता है। यह दशा ही तुरीय अवस्था है। इस स्थिति में ही अनाहत नाद या अनाहद शब्द सुनाई पड़ता है।

जब अनाहत नाद अंतर में बाँग मारना यानि सुनना आरम्भ कर दे तब सारे संशय दूर हो जाने चाहिएँ और जान लेना चाहिए कि परमात्मा तो अब मिलने ही वाले हैं| सदा निरंतर उसी को पूरी भक्ति और लगन से सुनना चाहिए| यह उच्चतम साधना है|

अभ्यास

  • अपने उचित ध्यान के समय, एकांत में खेचरी मुद्रा लगाकर सीधे होकर षण्मुखी-मुद्रा में बैठ जाएँ|
  • दृष्टी भ्रूमध्य में हो और ध्यान अनाहत चक्र में हो रही ध्वनि को सुनने लगा रहना चाहिए।
  • शुरू में सूक्ष्म आवाजें सयाद न सुनाई दें, और इसमें कुछ सप्ताह तक का समय लग सकता हैं।
  • आरम्भ में जब अनेक ध्वनियाँ सुनाई देने लगे उस समय जो सबसे तीब्र ध्वनी है उसी को ध्यान देकर सुनते रहो|
  • धीरे-धीरे एक ही ध्वनी बचेगी उसी पर ध्यान करते रहो|
  • यदी जरूरत पडे तो कोहनियों के नीचे कोई सहारा लगा लो|
  • कुछ महीनों के नियमित अभ्यास से वह अनाहत नाद की ध्वनी सुनई देने लगेगा |

सूचना

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                                                                  || ॐ सतनाम ||

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