मँड़ये के चारण समधी दीन्हा | पुत्र व्यहिल माता

मँड़ये के चारण समधी दीन्हा

मँड़ये के चारण समधी दीन्हा, पुत्र व्यहिल माता॥1॥

दुलहिन लीप चौक बैठारी। निर्भय पद परकासा॥2॥

भाते उलटि बरातिहिं खायो, भली बनी कुशलाता॥3॥

पाणिग्रहण भयो भौ मुँडन, सुषमनि सुरति समानी ॥4॥

कहहिं कबीर सुनो हो सन्तो, बूझो पण्डित ज्ञानी॥5॥

शब्दार्थ

कबीर साहेब जी यहाँ जिस अनोखी विवाह का उल्लेख कर रहे हैं उसमें मँड़ये (मतलब मंडप, जो शादी-ब्याह में सबसे अहम होता है) के पास जाकर समधी (मतलब लड़के या लड़की के पिता) ने चारण (मतलब बंदीजन, भाट जाति का व्यक्ति जो गाना गाते है) का काम किया और पुत्र के साथ माता ने ब्याह करा रहें है। मण्डल के नीचे लीप, पोत कर दुलहन को बिठाया और यह बात छिपाकर नहीं रखी, वरन् निर्भय होकर सबसे कह दी। बरातियों के लिए जो भात बनीथि उसने बरातियों को ही खा डाला और यह अच्छा कुशल क्षेम हुआ। जिस समय पाणि ग्रहण होना चाहिए था उस समय मुण्डन हुआ (मतलब सिर मूड़ा गया) और सुषुम्ना-सुरति में समा गई। कबीर दास जी सन्तों को सुना कर कहते हैं कि जो इस पहेली को बूझे वह ज्ञानी पंडित है।

आध्यात्मिक अर्थ

कबीर साहेब जी यहाँ आत्मा और परमात्मा के मध्य का द्वैत मिटाने के लिए एक रहस्यमयी विवाह का उल्लेख कर रहे हैं जिसके मंडप में चित्त को दो काम करना पड़ रहा है, एक समधी का और दूसरा चारण का। आध्यात्मिक पथ पे जब साधक साधना सुरू करता है उस समय समस्त चित्त वृत्तियों का उत्पादक उसका चित्त होता है, वह निग्रहित न होने पर अपने क्रिया-कलाप का ढिंढोरा भी पीटता फिरता है। जो काम उसे नहीं करने चाहिए, आश्चर्य है कि करता है। माता को पुत्र से ब्याह करना पड़ता है अर्थात् चित्त को मन के साथ गठजोड़ करना पड़ता है। दोनों का संग न सधे तो कोई प्रयोजन ही पूर्ण न हो। इसके लिए मन तो सहज सहमत नहीं होता पर चौक को लीप-पोत कर विवाह के लिए पुते चौक के नीचे बिठाना पड़ता है। वह समझदार है इसलिए बैठ जाती है। मन नासमझ है सो आना-कानी और उछल-कूद करता है। क्योंकि इस तथ्य को गुप्त रखने में कोई लाभ नहीं, इस लिए निर्भय होकर प्रकट करना पड़ता है कि दुलहन आत्मा को ही इस विवाह में उत्सुकता, आतुरता थी। मन तो बंधन में बँधने से अन्त तक आना-कानी ही करता रहता है।

साधक के अन्दर का जो चित्त वृत्तियों से उत्तपन्न दोस और दुर्गुण है वह बाराती का प्रतिक है तथा प्रीति-भोज में जो भात परोसा जा रहा है वह आध्यात्मिक दिव्य उपलब्धि का प्रतिक है।अतः जब साधक साधना करने बैठता है तब साधक के अंदर का दोष-दुर्गुण, बाराती बनकर इस तमाशे को देखने तो आते है लेकिन इस विवाह के उपरांत जो आध्यात्मिक दिव्य उपलब्धि होती है वो दोष-दुर्गुणों को ही उलटकर खा जाते हैं और उनका सफाया हो जाता है। यहाँ अच्छा कुशल क्षेम निकली जिसमे बारातियो ने अपने अस्तित्व को ही गँवा बैठे।

पाणि ग्रहण संस्कार के समय केशों का शृंगार होता है और कुछ मिलने की आशा होती है, पर यहाँ बिलकुल ही उलटा हुआ। यहाँ पर सिर मूँडन का तात्पर्य त्याग और वैराग्य से है। मतलब जो कुछ कमाया हुआ था उसको भी गँवा देना पड़ता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में मन इड़ा और पिंगला नाड़ी से हट कर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर जाती है, गम्भीर समाधि की अवस्था प्राप्त होती है और दूल्हा-दुलहन का जोड़ा मिलकर एकाकार हो गया। भक्त और भगवान का अन्तर समाप्त हो गया।

इसीलिए कबीर दास जी कहते है जो इस साधना विधि को जानता है और इसका अभ्यास करता है सचमुच में वो पंडित ज्ञानी है और सच्ची मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

सूचना

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|| ॐ सतनाम ||

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