झीनी-झीनी बीनी चदरिया | दास कबीर जतन करि ओढी
झीनी-झीनी बीनी चदरिया ॥
काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया ॥ १॥
इडा पिङ्गला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया ॥ २॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ॥ ३॥
साईं को सियत मास दस लागे, ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥ ४॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥ ५॥
दास कबीर जतन करि ओढी, ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥ ६॥
इस पद्द में कबीर दास जी बड़ी कीमती बातें कही हैं, जिसके हर एक शब्द समझने योग्य है ।
झीनी-झीनी बिनी चदरिया का अर्थ है कि बनाने वाले ने बड़े जतन और बड़े होश से इस शरीर को बनाया है। इस लिए इसको तुम जितना जाग कर जीयोगे, उतने ही बारीक और सूक्ष्म जीवन का अनुभव कर पाओगे। जितना सूक्ष्म अनुभव करोगे, उतना ही ज्यादा जागोगे। इस जीवन की चादर बड़ी झीनी है और जितना तुम झीनापन देख पाओगे, उसकी बनावट की बारीकी उतने समझोगे।
काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया
इडा पिङ्गला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया
इस शरीर को बनाने के लिए किस ताना, भरनी और तार का इस्तेमाल किया गया है। ताना, भरनी और तार कपड़ा बुनने में इस्तेमाल किया जाता है। यह तुम्हारा दिखाई पड़ने वाला शरीर न दिखाई पड़ने वाले को छिपाये हुए है। इस चदरिया यानि शरीर, इंगला-पिंगला ताना भरनी, और सुषमन तार से बुना गया है। अगर इसको समझना चाहते हो तो स्वर शास्त्र की कुछ जानकारी होना जरूरी है।
स्वर शास्त्र के अनुसार इस शरीर में 7200 नाड़ी हैं। जिसमें १० नाड़ी को प्रमुख मानते हैं। और इनमें भी तीन ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना बहुत ही महत्व पूर्ण है जो मेरुदण्ड से जुड़े हैं। ईड़ा को चन्द्र नाड़ी और पिंगला को सूर्य नाड़ी कहा जाता है। सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार से आरंभ हो कर सिर के सहस्रार तक अवस्थित है और सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं। अतः यहाँ पर कबीर साहेब इन 3 प्रमुख नाड़ी की बात कर रहे है जिससे ये शरीर रूपी चादर बिनी गयी है।
आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया
हमारे संत, महात्मा, ऋषि और मुनि ने शरीर को ही ब्रम्हाण्ड का सूक्ष्म मॉडल बताया है। इसमें 8 चक्र, 5 तत्व और तीन गुण हैं। ये आठ चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, मनश्चक्र (बिन्दु या ललना चक्र), और सहस्त्रार), हमारे शरीर से संबंधित तो हैं लेकिन इन्हें अपनी भैतिक इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं कर सकते हैं। परंतु इनसे निकलने वाली उर्जा ही शरीर को जीवन शक्ति देती है। पंचतत्व या पंच महाभूत माने आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से सम्पूर्ण सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है। प्रकृति के तीन गुण (सत्, रजस् और तमस्) बताए गए हैं। ये तीनों गुण सभी सजीव-निर्जीव, स्थूल-सूक्ष्म वस्तुओं में विद्यमान रहते हैं। इन तीन गुणों के न्यूनाधिक प्रभाव के कारण ही किसी व्यक्ति का चरित्र निर्धारित होता है।
कबीर दास जी कहते हैं कि आठ कंवल, जिनको हम चक्र कहते हैं, उनको अगर ठीक से समझें तो यहाँ कंवल कहने का कारण है। यह तो सिर्फ प्रतीकात्मक है। यदि आपने कभी नदी में कोई भंवर पड़ते देखा है, तो वहां चक्र में पानी घूमता प्रतीत होता है! वैसे ही ऊर्जा आपके शरीर में बने चक्र में घूमती है और उन भंवरों का जो रूप है वह कमल से काफी मिलता -जुलता है मानो जैसे कमल घूम रहा हो।
इन आठ चक्र का द्वार है दस इंद्रियां (पांच कर्म-इंद्रियां, और पांच ज्ञान इंद्रियां) का चरखा है। जब व्यक्ति अज्ञानी होता है, तो कमल नीचे की तरफ झुका मुरझाया हुआ होता है। जैसे-जैसे ऊर्जा ऊपर की तरफ बहनी शुरू होती है, कमल की डंडी सीधी होने लगती है, और कमल सीधा हो जाता है। पूरे कमल के खिल जाने में परम सत्य को पा लिया जाता है। इन्हे ही वेद ने उर्ध्वरेतस् कहा है। जब आप उर्ध्वरेतस् बनोगे तो तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की तरफ जाएगी, सब कमल ऊपर की तरफ उठ जाएंगे। जहाँ तक चक्र गिनने की बात करे तो कुछ एक लोग सात कंवल, कुछ आठ कंवल, कोई नौ कंवल और कोई ग्यारह कंवल गिनता है।
साईं को सियत मास दस लागे, ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया
सोई चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीनी चदरिया
यह शरीर पिंड, स्थूल और सूक्ष्म शरीर से बाना है जिसको बुनने (सियत का मतलब होता है सिलना या बुनना) में परमात्मा को दस महीने लग जाते हैं। और जिसको प्रकृति ने बड़े बारिकी से, ध्यान दे कर बनाया है। परमात्मा ने पूरा अस्तित्व बनाने में दस महीने तुम पर खर्च करता है लेकिन तुम इसका कोई मूल्य ही नहीं समझते।
कबीर साहेब जी कहते हैं कि प्रकृति द्वारा बनाए गए इस शरीर को सुर (स्वर्ग में रहनेवाला देवता), नर (साधारण मनुष्य), और मुनि (त्यागी जन), सबने ओढ़ी, और इन तीनों ने मैली कर दी। देवता भोग के कारण मैला कर देता है, मुनि त्याग के कारण मैला कर देते हैं। और बीच में जो मनुष्य है, वह खिचड़ी जैसा है। सुबह त्यागी, दोपहर भोगी; शाम त्यागी, रात भोगी। वह चौबीस घंटे में कई दफा बदलता है। भोगी का अर्थ है, वासनाओं के साथ जिसने अपने को इतना जोड़ लिया कि कोई फासला न रहा। देवता, भोगने के शुद्ध प्रतीक हैं। वे सिर्फ भोगते हैं। भोग से चादर मैली हो जाती है। भोगी और त्यागी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनकी कामना एक ही है। एक को मिल गया है; दूसरे मिल जाए, इसकी आशा में जी तोड़ कर लेगा हुआ है। इसलिए त्यागी भी सपने तो भोग के ही देखता है। कबीर साहेब जी कहते हैं, त्यागी, भोगी दोनों नष्ट कर देते हैं चदरिया को।
दास कबीर जतन करि ओढी, ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया
इस लिए कबीर साहेब जी कहते हैं मैने जतन से ओढ़ी, बड़े सम्हाल कर ओढ़ी, और होश से ओढ़ी और ज्यों की त्यों परमात्मा को वापस कर दी। यहीं मोक्ष है, यहीं मुक्ति की अवस्था है।
अब प्रश्न उठता है कैसे इस चादर को निर्दोष रखें?
कबीर साहेब जी कहते इस चदरिया को बचा लेने की कला है: होश, विवेक और जाग्रत चेतना। करो, जो कर रहे हो, जो करना पड़ रहा है। जो नियति है, पूरा करो क्योंकि भागने से कुछ प्रयोजन नहीं। लेकिन करते समय न करता बनो न भोक्ता । सिर्फ साक्षी रहो, यहीं सम्हाल कर ओढ़ने की कुंजी है।
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बहुत शानदार
धन्यवाद
https://youtu.be/qSfTIPXUSPY
कबीर जी के is dohe ko bahot hi स्पष्ट our आध्यात्मिक रूप se aapne samjhaya hai…. anek dhanyavaad
धन्यवाद, कृपा करके ज्यादा से ज्यादा भक्तो तक इस व्याख्या को फैलाने में मदत करे
आप द्वारा की गई व्याख्या बहुत सटीक है।
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The meaning of Sant Kabir’s composition has been elaborated very beautifully. Thank you very much.
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बहुत सुन्दर
आप ने कबीर साहेब के शब्द की व्याख्या बहुत ही सुंदर रूप में की है
नमस्कार जी।
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