इस वेबसाइट का मुख्य उद्देश्य सनातन मुक्ति के मार्ग के बारे में विस्तृत खोज करना है, ताकि लोगो तक मुक्ति का सही मार्ग मूलरूप में पहुँच सके। मेरा मनना है कि मुक्ति का मार्ग वही है जो लोगो को जन्म और मरण के बंधन से मुक्त करने में मदत करे।
मैं यहाँ पर किसी की निन्दा नहीं करना चाहता हूँ । लेकिन जहाँ तक मै देखता हूँ, आज कल हर जगह मुक्ति के नाम पर लोगो को सम्प्रदाय के दायरे में उलझा दिया जा रहा है।
यहाँ पर आप लोगो के मन में यह प्रश्न आएगा कि धर्म और संप्रदाय में क्या अंतर है?
बहुत सरल शब्दों में कहें तो, संप्रदाय किसी वर्ग विशेष के लिए होता है और उसका एक दायरा होता है। इसका अपना कुछ एक नियम होता है, जिसे उस संप्रदाय के सभी लोग बिना प्रस्न किये स्वीकार करते है।
जब की धर्म सर्वकालीन, सार्वभौमिक और सबका होता है। यह सब पर एक समान काम करता है चाहे वो किसी भी सम्प्रदाय का हो। जैसे जल का धर्म होता है जलना और जलाना। पानी का धर्म होता है भीगना और भिगोना। ये यह नहीं देखते की सामने वाला व्यक्ति किस सम्प्रदाय का है। यह किसी से पच्छपात नहीं करता।
भूतकाल में इसी मुक्ति के मार्ग के उत्तर जानने के लिए, राजा जनक ने ऋषि अष्टावक्र से तीन प्रश्न किये थे,
ये वो तीन शाश्वत प्रश्न हैं जो हर काल में आत्मानुसंधानियों द्वारा पूछे जाते रहे हैं।
इसी प्रक्रम में मैं फिर से इस आध्यात्मिक ज्ञान चर्चा के माध्यम से प्रकाशित करना चाहता हूँ।
यहाँ पर मै कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तित्व और उनके आध्यात्मिक बिचार के बारे में चर्चा करेंगे। ये वो व्यक्ति है जिनके लिए प्रत्येक संप्रदाय के ब्यक्ति एक समान थे। उन्होंने किसी ब्यक्ति विशेष को ही नहीं बल्कि जो भी कोई उनके पास मुमुक्ष भाव से ज्ञान के लिए गया, उनको सहज भाव से अपना शिष्य बनाया और उनको निष्पक्ष भाव से अपना ज्ञान दिया। यही नहीं, किसी को धर्म के नाम पे उलझाया भी नहीं।
सनातन धर्म में मुक्ति को प्राप्त करने के दो मार्ग – निर्गुण और सगुण बताए गए हैं। निर्गुण मार्ग में ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना की जाती है। निर्गुण ब्रह्म के उपासक मानते है कि ईश्वर अनादि, और अनन्त है। वह न जन्म लेता है न मरता है।
सनातन धर्म में मुक्ति को प्राप्त करने का दूसरा मार्ग है सगुण भक्ति। सगुण से तात्पर्य है ब्रह्म के आकार की उपासना करना अर्थात् उन्हें किसी रूप में पूजना। जैसे – राम व कृष्ण आदि।
द्वैत वाद के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि के अन्तिम सत् दो हैं । द्वैतवाद 13वीं शताब्दी से शुरु हुआ। यह विचारधारा ईश्वर को विश्व के स्रष्टा तथा शासक मानती है। द्वैतवाद के संस्थापक माधव थे ।
अद्वैत वाद के अनुसार “एकम् अद्वैतम् ब्रह्म” अर्थात् ब्रह्म एक है, दूसरा दूसरा नहीं। अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य थे। इनका मनाना था कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है, जीव और ब्रह्म अलग नही हैं।
राजा जनक द्वारा ऋषि अष्टावक्र से किये गए तीन प्रश्न (१) ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? (२) मुक्ति कैसे होगी? और (३) वैराग्य कैसे प्राप्त होगा? ये तीन शाश्वत प्रश्न हैं जो हर काल में आत्मानुसंधानियों द्वारा पूछे जाते रहे हैं।
ऋषि अष्टावक्र और राजा जनक के संवाद -अष्टावक्र गीता में ज्ञान, वैराग्य, मुक्ति और समाधिस्थ योगी की दशा का सविस्तार वर्णन है।
सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बनने से पहले अलारा कलम और उद्दाका रामापुत्त से योग-साधना सीखी थी। सिद्धार्थ गौतम स्वयं की साधना के बल पर ज्ञान की प्राप्ति कर के भगवान बुद्ध बने । ज्ञान की प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध आषाढ़ की पूर्णिमा को काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे वहीं पर पाँच मित्रों को सर्वप्रथम धर्मोपदेश दे धर्म-चक्र-प्रवर्तन किया । बाद में उनकी विद्या विपस्सना साधना के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
कबीर दास जी 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे।
तैलंग स्वामी अपने यौगिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों एवं लम्बी आयु के लिये प्रसिद्ध रहे हैं।
लाहिड़ी महाशय 18वीं शताब्दी के उच्च कोटि के साधक थे, जिन्होंने सद्गृहस्थ के रूप में यौगिक पूर्णता प्राप्त कर ली थी।
देवरहा बाबा, भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक योगी एवं सिद्ध महापुरुष थे।
सत्यनारायण गोयनका जी सायागयी उ बा खिन से विपस्सना साधना सीख कर इगतपुरी में विपस्सना साधना केंद्र की स्थापना की ।